बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, केशव, घोर कर्म क्यों मुझसे कराते ।
जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥
इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते ।
ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥
आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥
किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी ।
स्वभाव से प्राप्त गुणों के वश हो, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥
कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता ।
मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥
जो हितकर हो, एक बताओ, आपके वचन समझ नहीं आते ॥
इस लोक में निष्ठा, दो भाँति की, मेरे वचन जैसे दर्शाते ।
ज्ञानयोग को सांख्य उपासक, योगी कर्मयोग अपनाते ॥
आरम्भ रोककर कर्मों का, नैष्कर्म्य अवस्था मिलती नहीं ।
कर्मों के परित्याग मात्र से, सिद्धि प्राप्त हो सकती नहीं ॥
किसी काल में, कोई न रहता, कर्म किये बिन, क्षण भर भी ।
स्वभाव से प्राप्त गुणों के वश हो, प्रवृत्त कर्म में होते सभी ॥
कर्मेन्द्रियों को वश में रखकर, संयम अपना दिखलाता ।
मन से करे विषयों का स्मरण, वह मिथ्याचारी कहलाता ॥
इंद्रियों को मन से वश में कर, जो प्रवृत्त कर्म में होता है ।
जो शास्त्र विहित वे कर्म करो, अकर्म से कर्म श्रेष्ठतर है ।
बन्धनकारी वे कर्म यहाँ, जो कर्म यज्ञ के हेतु न हो ।
हे कुन्तीपुत्र, आसक्ति त्याग, यज्ञार्थ कर्म भली भाँति करो ॥
यज्ञ के द्वारा, सृष्टि रचकर, प्रजापति ने वचन कहे ।
इससे वृद्धि को प्राप्त करो तुम, जो अभीष्ट हो, इससे मिले ॥
देवों को प्रसन्न करो इससे, वे देव प्रसन्नता देंगे तुम्हें ।
प्रसन्न परस्पर करने से, जो परम श्रेष्ठ, वह मिले तुम्हें ॥
यज्ञ से तृप्त देवतागण, देंगे जो तुमको अभीष्ट भोग ।
वह चोर, प्रदत्त वस्तुओं का, देवों को दिए बिन, करे भोग ॥
अवशिष्ट यज्ञ का करे ग्रहण, तो सभी पाप मिट जाते हैं ।
निज हेतु पकाते जो भोजन, वे पापी पाप ही खाते हैं ॥
अन्न से निर्मित प्राणी हों, वर्षा से अन्न का उत्पादन ।
यज्ञ से होती है वर्षा, कर्मों से यज्ञ का होता सृजन ॥
कर्म का उद्भव ब्रह्म से है, ब्रह्म को अक्षर से जानो ।
ब्रह्म सर्वव्यापी को तुम, यज्ञ में नित्य स्थित जानो ॥
इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का, पालन जो नहीं करता है ।
इन्द्रियासक्त, जो पाप में रत, वह व्यर्थ ही जीवन जीता है ॥
आत्म में जिनकी प्रीति है, आत्म में तृप्ति है जिनको ।
संतुष्ट आत्म में जो व्यक्ति, कर्त्तव्य कर्म नहीं उनको ॥
ऐसा नहीं कुछ, जो उन्हें करना, जो नहीं करना, ऐसा भी नहीं ।
सभी प्राणियों में उनको, किसी हेतु भी आश्रय लेना नहीं ॥
इसलिए त्याग आसक्ति को, भली भाँति निरन्तर कर्म करो ।
आसक्ति रहित कर्मों से पुरुष को, परम लक्ष्य की प्राप्ति हो ॥
जनक आदि को, कर्मों से ही, परम सिद्धि उपलब्ध हुई ।
लोककल्याण की दृष्टि से भी, कर्म तुम्हारे लिए सही ॥
श्रेष्ठ पुरुष के आचरण को, अन्य लोग अपनाते हैं ।
वह जो प्रमाण कर देता है, वे उसको लक्ष्य बनाते हैं ॥
हे पार्थ, कोई कर्त्तव्य नहीं, जो करना मुझे त्रिलोकी में ।
कुछ पाना नहीं, नहीं करना त्याग, प्रवृत्त कर्म में फिर भी मैं ॥
यदि सावधानी पूर्वक मैं, कर्म में प्रवृत्त न होऊँ कभी ।
मेरे पथ का तब निश्चय ही, अनुकरण करेंगे लोग सभी ॥
यदि कर्म का मैं परित्याग करूँ, हो जाएँगे सब लोग भ्रष्ट ।
मुझ पर उसका सब होगा दोष, मुझ से होगी यह प्रजा नष्ट ॥
आसक्त होकर कर्म में, संलग्न जैसे अज्ञानी ।
लोकहित के भाव से, निष्काम कर्म करें ज्ञानी ॥
कर्मों में आसक्त हैं जो, उनकी बुद्धि में भ्रम न करे ।
भली भाँति कर्म करे ज्ञानी, नियुक्त कर्म में उन्हें करे ॥
प्रकृति के गुणों के द्वारा, किए जाते हैं कर्म सभी ।
अहंकार से मोहित जो, 'मैं कर्ता हूँ' माने फिर भी ॥
गुणों व कर्मों के विभाग को, पार्थ, तत्त्व से जानते जो ।
इन्द्रियाँ विषयों में रत हैं, पृथक स्वयं को मानते वो ॥
प्राकृत गुणों से मूढ हुए जो, प्रीति गुणों कर्मों में करें ।
जो मंदमति और ज्ञानशून्य, उन्हें ज्ञानवान विचलित न करें ॥
धारण अध्यात्म चित्तवृत्ति कर, सब कर्म समर्पित मुझमें करो ।
आशा ममता का करो त्याग, तुम शोकरहित हो युद्ध करो ॥
अनुसरण मेरे इस मत का, मानव नित्य जो करते हैं ।
वे श्रद्धावान असूया रहित, कर्मों से निश्चित तरते हैं ॥
लेकिन जो व्यक्ति असूया वश, मेरे मत को नहीं अपनाते ।
वे ज्ञान से मूढ़, विवेक रहित, उनके पुरुषार्थ व्यर्थ जाते ॥
ज्ञानवान भी चेष्टा करते, जैसा हो स्वभाव उनका ।
संचालित प्रकृति से प्राणी, निग्रह से हो सिद्धि क्या ॥
अवश्यम्भावी है राग द्वेष, इन्द्रियों का अपने विषयों में ।
इन दोनों के आधीन न हो, ये बाधा साधक के पथ में ॥
स्वधर्म का पालन भले, परिपक्वता से हो रहित।
परधर्म के भलीभाँति पालन, से परन्तु श्रेष्ठ है ।
निज धर्म पथ में हो निधन, कल्याणकारी किन्तु वह ।
परधर्म के निर्वाह में, भय है बहुत, अति क्लेश है ॥
किससे प्रेरित होकर, माधव, पापकर्म यह पुरुष करे ।
नहीं चाहते हुए भी बलवश, कौन नियोजित इसे करे ॥
धुएँ से अग्नि आच्छादित, धूल से दर्पण जैसे ढके ।
हो आवृत गर्भ जरायु से, उसी तरह यह ज्ञान ढके ॥
कभी नहीं बुझती जो अग्नि, काम का रूप भी है ऐसा ।
ज्ञानी का यह नित्य है वैरी, ज्ञान को, अर्जुन, इसने ढका ॥
इन्द्रियाँ मन बुद्धि इसके, आश्रय स्थल जाते हैं कहे ।
इनके द्वारा ज्ञान को ढक कर, मोहित यह देही को करे ॥
अतएव सबसे प्रथम, अर्जुन, इन्द्रियों को तुम वश में करो ।
जो नष्ट ज्ञान विज्ञान करे, इस काम को तुम विनष्ट करो ॥
मन से भी बुद्धि श्रेष्ठतर है, पर वह है बुद्धि से भी श्रेष्ठ ॥
जान उसे बुद्धि से श्रेष्ठ, तुम बुद्धि से मन को वश में करो ।
काम, जो नहीं अघाए कभी, उस शत्रु को, अर्जुन, नष्ट करो ॥
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