सजल नेत्र, विषाद से व्याकुल, मित्र को माधव समझाते ।
इस विषम समय में, किस हेतु, तुम मोह में स्वयं को उलझाते ॥
इस नपुंसकता का त्याग करो, यह मोह तुम्हारे यश को हरे ।
दुर्बलता हृदय की छोड़ो तुम, हे परम वीर हो जाओ खड़े ॥
पूज्य भीष्म और द्रोण हैं इन पर, किस विधि बाण चलाऊँगा ।
मधुसूदन बतलाओ तुम ही, मैं कैसे युद्ध कर पाऊँगा ॥
भिक्षा के अन्न से जीवन के, निर्वाह में ही मेरा हित है ।
इन महापुरुषों के वध से मिली, संपत्ति रक्त से रंजित है ॥
पराजय हो या मिले विजय, नहीं दोनों में ही लाभ कोई ।
नहीं चाहते जिनके बिन जीवन, हैं युद्ध में सम्मुख खड़े वही ॥
कायरता से अभिभूत हुआ, निज धर्म विषय में मोहित हूँ ।
जो हितकर हो, वह शिक्षा दो, मैं शिष्य तुम्हारी शरण में हूँ ॥
निष्कंटक राज्य हो पृथ्वी का, देवों का भी स्वामित्व मिले ।
ऐसा नहीं कोई उपाय सुलभ, जो प्रबल शोक मेरा हर ले ॥
'मैं युद्ध नहीं करूँगा' कह, जब अर्जुन चुप हो जाते हैं ।
शोकातुर मित्र को हँसते हुए, श्रीकृष्ण ये वचन सुनाते हैं ॥
जो शोक करने के योग्य नहीं, उनका तुम शोक मनाते हो ।
भाषा पंडित सी कहते हो, व्यवहार नहीं अपनाते हो ॥
करते नहीं पंडित शोक कोई, उनके लिए जिनमें प्राण नहीं ।
जो प्राणवान हैं, उनके लिए भी, शोक का कोई विधान नहीं ॥
नहीं काल हुआ था ऐसा कभी, मैं जिसमें नहीं था, तुम थे नहीं ।
आगे भी ऐसा होगा नहीं, जिस काल में हम सब होंगे नहीं ॥
इस देह में जैसे मिलती है, बालक यौवन वृद्धावस्था ।
देह अन्य उसी भांति प्राप्त हो, मोह न करते धीरव्रता ॥
इन्द्रियों और विषयों के मेल से, शीत उष्ण सुख दुःख का सृजन ।
आने जाने वाले ये, अनित्य हैं, इनको कर लो सहन ॥
सुख दुःख को एक समान समझ, विचलित नहीं इनसे होता है ।
हे पुरुषोत्तम, वह धीर पुरुष ही, योग्य मोक्ष के होता है ॥
नहीं असत् वस्तु की है सत्ता, सत् वस्तु का है अभाव नहीं ।
जो तत्व समझने वाले हैं, उन सबका है निष्कर्ष यही ॥
जिससे यह सबकुछ व्याप्त हुआ, उसको तुम जानो अविनाशी ।
विनाश करे उस अव्यय का, नहीं किसी में इतनी बलराशि ॥
ये देह नष्ट हो जाते हैं, नहीं वो जो इन्हें धारण करता ।
इसलिये हे भारत युद्ध करो, वो असीमित है, वो नहीं मरता ॥
कोई मारने वाला समझे इसे, कोई मरने वाला मानता है ।
दोनों इसको नहीं जानते हैं, न ये मरता है न ही मारता है ॥
यह अति पुरातन, नित्य शाश्वत, जन्मता मरता नहीं ।
फिर फिर से है नहीं उपजता, देह नाश से मिटता नहीं ॥
इस अज अविनाशी अव्यय को, हे पार्थ, जो पुरुष समझता है ।
कैसे वह किसी का वध करता, कैसे वध करवा सकता है ॥
जैसे नर जर्जर वस्त्र त्याग, नूतन वस्त्रों को करे धारण ।
वैसे ही जर्जर देह त्याग, देही नव देह करे धारण ॥
नहीं छेद सकते शस्त्र इसको, अग्नि से नहीं यह जले ।
वायु सुखा सकता नहीं, गीला नहीं जल कर सके ॥
अविभाज्य सनातन नित्य अचल, अव्यक्त है यह सर्वत्र स्थित ।
अचिन्त्य अविकारी, इसे जानकर, शोक तुम्हारे लिए अनुचित ॥
यदि नित्य इसको जन्मता, और नित्य मरता मानते ।
इसके लिए किसी शोक का, तब भी नहीं कारण तुम्हें ॥
जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित, मृत का है निश्चित जन्म ।
अपरिहार्य इस सम्बन्ध में, फिर शोक क्यों करते हो तुम ॥
होते सभी अव्यक्त आदि में, मध्य में रूप करे धारण ।
अव्यक्त निधन हो जाने पर, नहीं शोक का है कोई कारण ॥
कोई देखे आश्चर्य से इसको, कोई आश्चर्य से इसे कहे ।
कोई आश्चर्य से सुनता है, कोई सुनने पर भी नहीं समझे ॥
सभी शरीरों में यह देही, नित्य अवध्य अवस्थित है ।
इसलिए सभी जीवों के लिए, यह शोक सर्वथा अनुचित है ॥
अपने धर्म का भी यदि सोचो, युद्ध से हटना उचित नहीं ।
धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ जगत में, क्षत्रिय के लिए कुछ भी नहीं ॥
धर्मयुद्ध यदि नहीं करोगे, अपकीर्ति होना तय है ।
सज्जन को मृत्यु से ज्यादा, अपयश का होता भय है ॥
भय के कारण युद्ध से भागा, महारथी समझेंगे तुम्हें ।
सम्मानित जिन बीच हुए हो, वही तुच्छ समझेंगे तुम्हें ॥
नहीं कहने से वचन सुनाते, शत्रुओं को सुनना होगा ।
निंदा तेरे सामर्थ्य की होगी, उससे अधिक दुःख क्या होगा ॥
मर गए तो स्वर्ग को पाओगे, जीते तो धरा का राज्य मिले ।
इसलिए युद्ध का निश्चय कर, हे कुन्तीपुत्र, हो जाओ खड़े ॥
विजय पराजय, लाभ हानि को, एक समान समझ कर के ।
करने को युद्ध तत्पर होगे तो, पाप न कोई लगेगा तुम्हें ॥
इस ज्ञान को, पार्थ, समझने से, मिट जाएँ सकल कर्म बंधन ॥
होता नहीं नाश प्रयत्न का है, नहीं दोष कोई इसमें होता ।
इस धर्म का थोड़ा भी पालन, बड़े भारी भय से बचा लेता ॥
निश्चयात्मिका बुद्धि तो, कुरुनन्दन, एक ही होती है ।
अन्य बुद्धियाँ होती अनंत, कई शाखा उनमें होती हैं ॥
स्वर्गप्राप्ति ही इष्ट है जिनका, कामासक्त जो अल्पमति ।
ऐश्वर्य भोग जिनसे मिलता है, उन्ही क्रियाओं में है रति ॥
इन्द्रिय सुख से अन्य तत्त्व की, सत्ता जिन्हें स्वीकार नहीं ।
निश्चयात्मिका बुद्धि उनको, होती कभी भी प्राप्त नहीं ॥
तीन गुणों का ज्ञान वेद में, निर्गुण में हो जाओ स्थित ।
निर्द्वन्द्व, रहित हो योगक्षेम से, नित्य सत्त्व में प्रतिष्ठित ॥
जो अर्थ सिद्ध हो छोटे कूप से, बड़े जलाशय से हो सुगम ।
जो होता वेदों से सिद्ध, उससे भी ब्रह्मज्ञान उत्तम ॥
कर्म में ही अधिकार तुम्हारा, नहीं कभी उनके फल में ।
आसक्त न हो उनके फल में, ना ही उनको नहीं करने में ॥
आसक्ति त्यागकर, योग में स्थित हो, कर्मों को किया जाता है ।
समता रहे सिद्धि असिद्धि में, वह समत्व, योग कहलाता है ॥
बुद्धियोग से रहित कर्म, निकृष्ट श्रेणी में आते हैं ।
बुद्धि की शरण लो, हे अर्जुन, फल लोलुप कृपण कहाते हैं ॥
बुद्धियुक्त देते हैं त्याग, दोनों, सुकृत और दुष्कृत को ।
योग कर्म में कौशल है, तुम योग के लिए प्रयत्न करो ॥
बुद्धियोग से युक्त मनीषि, कर्म जनित फल देते त्याग ।
निर्मुक्त जन्म के बंधन से हो, क्लेशरहित पद करते प्राप्त ॥
मोहरूप सघन वन को जब, पार तुम्हारी बुद्धि करे ।
सुनने योग्य और सुने हुए सब, विषयों में तब रुचि घटे ॥
सुनने से विरक्त हो बुद्धि, निश्चल जब हो जाएगी ।
अचल समाधि में हो स्थापित, योग को प्राप्त कराएगी ॥
समाधिस्थ उस स्थितप्रज्ञ के, लक्षण कैसे होते हैं ।
केशव, वे बात किस तरह करते, कैसे रहते, चलते हैं ॥
मन की सभी कामनाओं का, जब वे त्याग कर देते हैं ।
अपने आत्म में तृप्त हो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब कहते हैं ॥
दुःख में जो उद्विग्न न हों, स्पृहा से रहित सुख में रहते ।
हो राग नहीं, भय क्रोध न हो, स्थितप्रज्ञ उन्हें तब हैं कहते ॥
शुभ पाकर होते नहीं हर्षित, अशुभ से द्वेष नहीं करते ।
अनासक्त सर्वत्र जो रहते, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही हैं कहते ॥
अपनी इन्द्रियाँ विषयों से, जो उसी प्रकार हटाते हैं ।
जैसे कछुआ अंग समेटे, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं ॥
विषयों के हट जाने पर भी, उनके रस में रहती रुचि ।
परम तत्त्व दर्शन करने पर, उसमें भी होती अरुचि ॥
ये इन्द्रियाँ, किन्तु हे अर्जुन, स्वभाव से उग्र ही होती हैं ।
विवेकशील व्यक्ति का मन भी, बलपूर्वक हर लेती हैं ॥
इन सबको संयम में लाकर, जो मेरे परायण रहते हैं ।
ये इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥
चिंतन विषयों का करने से, उनमें होती है आसक्ति ।
आसक्ति से बनती है कामना, उससे क्रोध की उत्पत्ति ॥
सम्मोह क्रोध से होता है, सम्मोह से होता स्मृतिनाश ।
उससे बुद्धि हो जाती नष्ट, जिससे होता है पूर्ण विनाश ॥
लेकिन जो संयमी होते हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ वश में हैं ।
विषयों के सेवन से भी वे, प्राप्त प्रसन्नता करते हैं ॥
प्रसाद प्राप्त कर लेने पर, मुक्ति दुःख से मिल जाती है ।
हो चित्त प्रसन्न, शीघ्र ही उनकी, बुद्धि स्थित हो जाती है ॥
जिसने मन को नहीं जीता है, भला उसको बुद्धि हो प्राप्त कहाँ ।
नहीं ध्यान करे, न मिले शान्ति, जो अशांत है, उसको सुख है कहाँ ॥
जैसे जल में बहती नाव को, वायु हर ले जाती है ।
जिस इन्द्रिय में है रमता मन, वह बुद्धि हर ले जाती है ॥
इसलिए विषयों से जो अपनी, इंद्रियों को वश कर लेते हैं ।
महाबाहो, जिनके वश में मन, स्थितप्रज्ञ उन्हें ही कहते हैं ॥
जो रात्रि सभी प्राणियों हेतु, उसमें वे संयमी जागते हैं ।
जिसमें जागते रहते प्राणी, रात्रि उसे वे मानते हैं ॥
परिपूर्ण समुद्र में जैसे नदियाँ, क्षोभ रहित हो करें प्रवेश ।
करती प्रवेश कामना जिसमें, वह शान्ति पाए, उसे नहीं क्लेश ॥
सभी कामनाओं को त्यागकर, जो स्पृहा से रहित रहते ।
नहीं ममता और अहंकार हो, शान्ति प्राप्त वो ही करते ॥
हे पार्थ, ये ब्राह्मी स्थिति है, इसको पाकर कभी मोह न हो ।
अन्तकाल में भी इसमें स्थित, निर्वाण प्राप्ति निश्चित हो ॥
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